Wednesday, May 15, 2024
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रिश्तेदारी और परदा

बहुत दिनों से भूली-बिसरी थी,
एक पुरानी रिश्तेदारी….!
मिलने की ईच्छा लेकर,
पहुँचा जो मैं… दरवाजे पर…
डोरबेल बजाई… फिर बजाई….
फिर बार-बार बजाई…..
कुल बीस मिनट बाद..!
कर्कश सी आवाज आई,
आती हूँ… आती हूँ….
विकल मत हो भाई….!
खैर… धीरे से दरवाजा खुला…
न दुआ-सलाम… न हाय… न हैलो
बस गेस्ट रूम का दरवाजा खुलो..
बड़े सलीके से सोफासेट पर
अपना रिश्तेदार आया…
कुटिल मुस्कान के साथ,
बैठने के लिए फ़रमाया…
फिर इशारे पर दुरुस्त किया गया,
घर का एक-एक परदा….
शायद रोकने को….!
मेरे आचरण का ग़रदा….
क्या कहूँ सोच रहा था मैं..
यह कैसी है रिश्तेदारी….?
जहाँ दिख रहा हूँ…
मैं ही सबसे बड़ा व्यभिचारी…!
न पानी… न मिठाई आई….
न नमकीन-चाय की ही बारी आई
घर में ग़ज़ब की शान्ति छाई..
मुझसे सवाल झट से पूछा गया,
इधर कहाँ घूम रहे हो भाई…?
अभी पढ़ ही रहे हो…या…!
कुछ कर रहे हो कमाई-धमाई…
मित्रों यह सवाल तो….!
पिछले कुछ वर्षों से ही,
बना हुआ था मेरे लिए कसाई….!
इसने यहाँ भी मेरा,
पिण्ड नहीं छोड़ा मेरे भाई…
मन में पीड़ा हुई… आँखे भर आई
झुंझलाहट में कहा मैंने…!
बेरोजगार हूँ… कुछ कमाता नहीं हूँ
इसीलिए.. कहीं भी जाता नहीं हूँ..
मेरी मति गई थी मारी ..!
जो चला आया था आज,
निभाने यह पुरानी रिश्तेदारी…
फिर एक बात मैंने पूँछी…!
आप तो करते हो नौकरी सरकारी
फिर किस बात की लाचारी…?
परदे में क्यों छुपा रहे हो आप…
अब अमीर हुई पुरानी रिश्तेदारी
जाने कैसी चादर है तुमने ओढ़ी
परदों से ढक रखी है…!
घर की हर खिड़की-आँगन-ड्योढी
मैं भी समझता हूँ भाई…
तुमको डरा रही है…!
विकास की… हँसती हुई परछाई…
तुम्हें फ़िकर कहाँ है इसकी…
क्या होती है अच्छाई या बुराई…?
अब सूरत थी उनकी सकपकाई,
मोहतरमा भी थी खूब सकुचाई…
सच कैसे बताऊँ मित्रों….
यहाँ तो परदो ने ही….!
उनकी इज्जत-लाज बचाई…
इनके कारण ही.. घर के लोग…
मेरा उत्तर सुन नहीं पाए भाई..
इधर मैं तो समझ ही गया था
मित्रों…. घर वालों ने ..क्यों थी…?
यह पुरानी रिश्तेदारी बिसराई…
यह पुरानी रिश्तेदारी बिसराई…
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज

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