देखा जो मैंने…. कंक्रीट की बनी…
शहरी इमारतों की बुलंदियाँ…
आँखें बिचारी पल में ही… गई चौधिया
किस ओर से गिनूँ इनको….!
दाहिने से बाईं तरफ जाऊँ… या…
बाईं तरफ से दाहिने जाऊँ… यानी
क्लाकवाइज़ या एन्टीक्लाकवाइज़..!
कुछ समझ में न आए… पर….
एक बात तो समझ में आ ही गई,
घूम-फिर कर दुनिया गोल है….
कभी सोचा नीचे से गिनूँ…. या …
ऊपर से करूँ शुरू…. इसमें भी…!
बस एक बात समझ में आ ही गई,
आसमान तो…. दिखता ऊँचा भर है…
यहाँ मनुष्य की इच्छा तो….!
आसमान की विजय पर है….
इसी जद्दोजहद में…. देख लेता हूँ…
लोगों की सपनों की उड़ान,
कभी-कभी इसी में देखता हूँ…!
गाँव की भाषा में…. भेड़िया धसान…
या…ऊँची दुकान के फीके पकवान…
इन इमारतों के बीच… अक्सर…
दिख जाता है पार्क या खेल का मैदान
नदारत होते हैं जहाँ से… सभी गमले..
फूल सजाने के हो…. या फिर…
हों बालू से भरे पीकदान…!
सच कहूँ तो इमारतों के बीच में,
हो गया है यह तो बस एक कूड़ा दान
यह अलग बात रही कि,
यहीं पर अक्सर होता है,
कॉलोनी के विद्वानों का जुटान…!
इसके अलावा मित्रों….
एक बात और समझ में आई….
यहाँ किसी को किसी से….!
मिलने की फुरसत नहीं है भाई…
शुभ-अशुभ कर्मों के लिए….!
यहाँ न निकलता… कोई मुहूरत है…
ना ही यहाँ….किसी को किसी की…!
कोई जरूरत है….
एक बात और मित्रों….
देखा जो शहर की,
इन ऊँची-ऊँची इमारतों को….!
इसी बहाने करीब से समझ पाया मैं ,
निर्बल और गरीब के प्रति….
सबल और अमीर की हिकारतों को..
अब और ज्यादा क्या लिखूँ…
गाँव का हूँ…. गँवार सा हूँ न….
कुछ कम पढ़ा लिखा हूँ… शायद…!
बस इसलिए मजबूर हूँ….
शहर की इमारत गिनने को… और….
मान लिया है मैंने भी…
साहस-बल ही नहीं मिला है मुझको…
कोई नई इबारत गढ़ने को…!
कोई नई इबारत गढ़ने को…!
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ।