ज़माने में…. मेरी तरह….
रखने लगे हैं लोग,
अलग से हमराह….
उन्हें भी शायद….!
अपने भाई से डर लगता है….
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घूमता था जो… मेरी अंगुलियां पकड़…
नंगे बदन साथ मेरे…
भाई वही…. अब भरे समाज में…
मुझे नंगे बदन देखना चाहता है….
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एक अजीब सा फ़लसफ़ा है उसका,
हरहाल में भाई मेरा … अब मेरा ही…!
बड़ा भाई बनना चाहता है….
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अपनी चाहतों के हिसाब से…!
हर व्यक्ति मौन तनहाई रखता है….
सही-ग़लत मालूम नही मुझको…पर..
विकास के दौर में…. यही सच है मित्रों
साथ में अब नहीं ….!
किसी का…. कोई भाई रहता है….
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बड़ी उम्मीद से…. पकड़ा के अंगुली….
खड़ा किया था जिसको…
भाई वही ठोकर मारकर….!
अब तो… गिरा देता है मुझको…
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खिलौने खूब खरीदे हमने,
कहीं से चुराए भी… उसके लिए…
अफसोस…. मैं भी….!
भाई के लिए एक खिलौना निकला…
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बुरी नजरों से बचाया जिसको,
काला टीका लगा-लगाकर….
भाई वही मुख पर मेरे….!
कालिख पोतना चाहता है अक्सर….
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कतराता है वह….!
पहचानने से भी मुझको….
कोई पुरानी टीस…. भाई मेरा…
दिल में दबा कर रखता है…..
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बा-अदब ख़ामोश ही पेश आया
मैं तो….ज़माने भर के सामने…..
इन नसीहतों से उसे क्या मतलब…?
मेरी ख़ामोशी को भी…महफ़िल में…
करीने से भुनाया उसने…..!
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रहता था जो परछाई की तरह,
डर तो अब उस भाई से लगता है…
दो टूक कहूँ तो मित्रों….
खैर मनाते हुए गुजरते हैं दिन-रात
अब तो सपने में भी,
भाई…. कसाई लगता है….!
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ