Sunday, April 28, 2024
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विदेशी परिधान में अपनी मातृभाषा भूल जाता हूं: गुरु रविंद्रनाथ टैगोर

गुरु रविंद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी एक ही दशक में पैदा हुए थे। गुरु रविंद्रनाथ टैगोर 7 मई 1861 में और गांधी जी 2 अक्टूबर 1869 में पैदा हुए थे। टैगोर जी से गांधी जी केवल 8 साल बड़े थे लेकिन विचार में काफी अंतर था। 1921 में टैगोर ने गांधी जी की हंसी उड़ाई थी कि अगर देश में सभी लोग चरखे पर सूत काटना शुरू कर दें तो वे एक साल में ही स्वराज ला देंगे। कई मुद्दों पर मतभेद होने के बावजूद दोनों एक—दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। गुरु जी गांधी जी को महात्मा कहते थे तो गांधी जी रविंद्र नाथ जी को गुरु कहकर बुलाते थे। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई थी कि राष्ट्रगान से सिंध शब्द निकाल दिया जाय, क्योंकि सिंधु पाकिस्तान में है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि टैगोर जी दुनिया के पहले ऐसे कवि है जिन्होंने 2 देशों के राष्ट्रगान (भारत के जन गण मन और बांग्लादेश के आमार सोनार बांग्ला) लिखा था। श्रीलंका के राष्ट्रगान पर भी उनकी छाप दिखाई देती है। वैसे तो श्रीलंका के राष्ट्रगान को 1939-40 में आनंद समारको ने तब लिखा था जब वे विश्व भारती में टैगोर के शिष्य थे। जन गण मन की रचना 1911 में हुई थी और इसे पहली बार उसी साल कोलकाता में कांग्रेस के 27वें वार्षिक अधिवेशन अधिवेशन में गाया गया था। इसी साल भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाने का निर्णय तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने लिया। नित्य प्री घोष अपनी किताब रविंद्र नाथ टैगोर पेट्रोलियल बायोग्राफी में लिखते हैं।
टैगोर जी के एक मित्र ने उनसे सम्राट जॉर्ज पंचम के दिल्ली दरबार के मौके पर उनके सम्मान में एक गीत लिखने का आग्रह किया था। उस आग्रह को ठुकराते हुए टैगोर ने किसी अंग्रेज राजा नहीं, बल्कि सभी व्यक्तियों के दिलों पर राज करने वाली शक्ति के सम्मान में यह गीत लिखा था। एंग्लो इंडियन प्रेस की पैदा की हुई अफवाह की उम्र काफी लंबी निकली कि यह गीत सम्राट जार्ज पंचम का स्वागत गीत है। आज भी जब तक लोग टैगोर के देशप्रेम पर सवाल उठाने के लिए इस कथित स्वागत गीत का उल्लेख कर देते हैं।
टैगोर के पूर्वज मूलत: जैसोर (बांग्लादेश) के थे। टैगोर का परिवार बहुत शिक्षित और संपन्न परिवार था। गुरु जी के बड़े भाई सत्येंद्र नाथ टैगोर भारत के नहीं, बल्कि संभवत एशिया के प्रथम आईसीएस अधिकारी थे। आस—पास के लोग उनका बहुत सम्मान करते थे और उन्हें ठाकुर कहकर बुलाते थे। यही ठाकुर अंग्रेजी भाषा में बाद में टैगोर हो गया। रवींद्रनाथ टैगोर ने 1907 से 1910 के बीच गीतांजलि की कविताएं लिखी।
सियालदह में पद्मा नदी के तट पर उन्होंने गीतांजलि की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। जब वह 27 मई 1912 को इंग्लैंड के लिए रवाना हुए तो वह अपने साथ अपनी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद भी ले गये। रवींद्नाथ अपनी आत्मकथा माय लाइफ इन माय वर्ड्स में लिखते हैं। मैं इन कविताओं का संग्रह अपने मित्र डब्लू वी इट्स को दे दी। इट्स ने इन कविताओं को अपने मित्रों को सुनाई।
इट्स के मित्रों ने इन कविताओं के संग्रह को इंडियन सोसाइटी ऑफ लंदन द्वारा छपवाने का फैसला किया। इस तरह 1912 में गीतांजलि का सबसे पहले लंदन में प्रकाशन हुआ नोबेल पुरस्कार पाने की खबर मुझे 14 नवंबर 1913 को शांति निकेतन में मिली सरोजिनी नायडू ने टैगोर जन सदी 1961 में प्रकाशित स्मारिका में लिखा जब गीतांजलि प्रकाशित हुई तो सहयोग से मैं लंदन में ही थी। वहां जब महान आइरिश कवि विलियम बटलर यीट्स ने जब गीतांजलि पढ़ा तो पागल से हो गये। बिल्कुल पागल मैंने ऐसा भी एक दृश्य देखा। एक बस में एक तरफ पांच बुजुर्ग महिलाएं बैठी थी। इन महिलाओं के हाथों में गीतांजलि थी और वे उसे पढ़ रही थी।
13 अप्रैल 1919 में जब जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में फायरिंग का आदेश दिया। इस फायरिंग में आधिकारिक तौर पर 379 लोग मारे गए रविंद्र नाथ टैगोर ने वायसराय चेम्सफोर्ड को पत्र लिखकर उन्हें ब्रिटिश सम्राट द्वारा 1915 में दी गई। नाइट की उपाधि छोडऩे की घोषणा कर दी। भारत में ब्रिटिश प्रेस ने टैगोर के इस प्रस्ताव को सम्राट का अपमान मानते हुए उग्र प्रतिक्रिया दी।
टैगोर उपनिवेशवाद के हमेशा विरोधी रहे। ऐसे समय में जब उनके बहुत से साथी आजादी की लड़ाई की लड़ रहे थे तो टैगोर दिमाग की आजादी की बात कर रहे थे। जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रो. सुप्रिया चौधरी कहती हैं कि टैगोर दिखाना चाहते थे कि राजनीतिक आजादी का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक लोग मानसिक गुलामी से अपने आप को आजाद नहीं कर लेते। टैगोर ने एक बार अजीत चक्रवर्ती से कहा था। जब भी वे पश्चिमी परिधान पहनते हैं, सरस्वती उनका साथ छोड़ जाती है। टैगोर की एक कविता पूरे भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रमों में है। मन जहां डर से परे हैं और सिर जहां ऊंचा है। ज्ञान जहां मुक्त है वहां दुनिया को संकीर्ण घरेलू दीवारों से छोटे-छोटे टुकड़ों में नहीं बांटा गया है। 1901 में इस कविता का अंत देश की आजादी के आह्वान से होता है।
हरी लाल यादव
सिटी स्टेशन जौनपुर
मो.नं. 9452215225

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