अपनी बात कहना कोई गुनाह
नहीं, मैं भी यह गुनाह करता हूँ,
जब वह आँधी बनकर आती है,
बहती हवाओं को लिखता हूँ।
उन आँधियों का जुल्म लिखता हूँ,
जैसे जैसे अन्याय वह करती हैं,
गरीबों के घरों से वह हवायें जब
हमें घर से भी बे-घर करती हैं।
मैं भी उनमें से ही हूँ, जो एक
बेघर हुये का दर्द समझता है,
इसीलिये बेघर होने के भय से
बेघर का दर्द यहाँ लिखता है।
विडम्बना नहीं है तो और क्या है,
यह कि इस अपने देश में ही हम,
शरणार्थी का सा जीवन जी रहे हैं,
वक्त ज़रूरत उनका मुँह ताक रहे हैं।
सैनिकों के विरुद्ध किसी षड्यंत्र
की उस आंधी ने बख्शा नहीं हमें,
त्रासदी, जिससे मैं जूझ रहा हूँ,
मैं उन रचे षड्यंत्रों को लिखता हूँ।
जिस त्रासदी ने हमें जकड़ा हुआ है,
कि हम जो बचे हैं अब त्राहि माम,
पाहि माम उनसे करते रहते हैं,
इतने क्रूर इस धरा पर रहते हैं।
शहीदों की चिताओं पर मत इस
राजनीति का कुटिल लेप लगाओ,
आदित्य वो इन्सान हैं इन्सानियत,
का जनून है दिल में तो दिखलाओ।
कर्नल आदिशंकर मिश्र ‘आदित्य’
जनपद—लखनऊ