जमाने भर को हैं फुरसतें इतनी…
कि टूट कर बिखरते घरों पर भी,
सुकून से बैठकर हँसना चाहते है,
दूसरे के दुखों को…
मानकर आपदा में अवसर…
लोग खूब जोर से….
खिलखिलाना चाहते हैं ….!
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कुछ पहलवान इस क़दर हो गए हैं
कि हड्डियों पर टिकी शरीर पर भी,
अकारण ही गरजना चाहते हैं….
तेज इतना मान लिया है अपना
कि…हर एक के सामने होकर…
खुद ही उलझना चाहते हैं….!
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जीवन कुछ ऐसा है….
ऐसी ही है कड़वी यादें..कि…
बिना चोट के…अनायास ही…
आँख से आंसू ढरकना चाहते हैं
ईच्छाएं बढ़ गई हैं कुछ इस क़दर
कि टिमटिमाते जुगनू भी…अब..
पटल पर चमकना चाहते हैं…!
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मस्ती की चाहत तो इस कदर है,
कि….किसी के घाव पर भी….
पाँव लोगों के थिरकना चाहते हैं…
जमाने में तमाशा देखने को…
भीड़ में घुसते हैं लोग…पर…
कुछ भी पूछने पर…
धीरे से खिसकना चाहते हैं…!
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कौन सुन रहा है यहाँ….?
सही बात भी किसी की…
मजबूर होकर सभी…
अन्दर ही अन्दर सुलगना चाहते हैं
जमाने भर के लोगों ने,
किया है मजबूर इतना…..
कि…औलाद और पेट की खातिर
मजदूर बनकर लोग सुबह से शाम
धूप में झुलसना चाहते हैं….!
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यद्यपि…समाज की यही नियति है
पर…यह भी मान लो मित्रों…
कि अभी भी बचा है…
जमाने में ईमान-धरम…
कुछ इस तरह से
कि….देवों को जो फूल…
प्रभात ही चढ़ नहीं पाए….
खुद ही डाली से झड़ना चाहते हैं
और …बिना दाग दामन पर लिए,
अपनी ही माटी में,
मिलना चाहते हैं…..!
अपनी ही माटी में,
मिलना चाहते हैं…..!
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद कासगंज