जय आत्मेश्वर
गहँन ध्यान की बहती, धारा में, आओ संग चलें, सागर की ओर।
बूँद बन दुख ही, पाए अब तक, सागर बनजाएँ, पकड़ ध्यान डोर।।
गुरुगामी को होती, नहीं समस्या, गुरु रूप मिले, सामुहिक एकता।
कुछ भी अनहित, नहीं हो पाए, सामूहिकता है कवच, देती सुरक्षा।।
ज्ञान बाँटना है, लो जिम्मेदारी, गुरु कृपा स्वयं, देगी सारा ज्ञान।
हो कार्य क्षेत्र, केवल बाँटना, पन्क्षी बन उड़ो, मिलेगा आसमान।
गहँन ध्यान में, जागे प्रेम धर्म, निस्वार्थ प्रेम, जीने की कला।
ईर्ष्या का भाव, जाए सहज छूट, प्रार्थना निकले, सबका हो भला।।
निसार्थ प्रेम, आत्मिक स्वभाव, स्पन्दन हिय से, हिय तक प्रभाव।
आनन्द निर्झर, होता प्रतीत, ध्यान से बढ़े, आत्मीय प्रेम भाव।।
वाणी न कर सके, जिसे व्यक्त, हो आनन्द भीतर, अनुभव प्रत्यक्ष।
आत्मा रहे मुदित, स्वीकारी भाव, गुरुचरणी चित्त, नियंत्रित हो स्वच्छ।
निस्वार्थ प्रेम, आत्मिक स्वभाव, स्पन्दन हिय से, हिय तक प्रभाव।
आनन्द निर्झर, होता प्रतीत, ध्यान से बढ़े, आत्मीय प्रेम भाव।।
वाणी न कर सके, जिसे व्यक्त, हो आनन्द भीतर, अनुभव प्रत्यक्ष।
आत्मा रहे मुदित, स्वीकारी भाव, गुरुचरणी चित्त, नियंत्रित हो स्वच्छ।
गहँन ध्यान का होता, समय विशेष, करो चार बजे, ध्यान खन्ड प्रवेश।
सूक्ष्म रूप से गुरु का, मिले साथ, ब्रह्म मुहूर्त में रहता, निसर्ग विशेष।
वही है कर्ता, सब कुछ करता, माध्यम चुनता, कोई व्यक्ति विशेष।
सद्गुरु के रूप, सबसे मिलता, देता रहता, अनमोल संदेश।।
जिसके हृदय हो, सबके प्रति प्रेम, न हो दोष दृष्टि, स्वीकार स्वभाव।
रहे सदा मुदित, सबसे ही जुड़ा, माध्यम रूप उसका, होता चुनाव।।
रचनाकार— श्रीधर मिश्र
जय आत्मेश्वर
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