कजली ऋतु गीत है। सावन की रिमझिम फुहार के साथ ही इस गीत को लोक मानस गाता और गुनगुनाता है। लोक साहित्य के अंर्तगत लोकगीतों का विशेष स्थान है। वस्तुत: कजली लोकगीत है। ऐसे लोकगीत जो ऋतुपरक हैं, उनके माध्यम से लोक मानस अपने हृदय के उद्गार अपने सुख-दुख को व्यक्त करता है। कजली सावन मास में गाई जाती है। सावन में आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादलों की आवाजाही और धरती पर चारो तरफ फैली हुई हरियाली एक अद्भुत निराली छटा बिखराती हुई प्रकृति, चारों तरफ श्यामलता और शीतलता का फैलाव बड़ा ही मनमोहक होता है। भक्त कवि सूरदास जी लिखते हैं– “जंह देखौं तंह श्याममयी है।श्याम कुंज वन यमुना श्यामा, श्याम श्याम घन घटा छाई है।“
तो ऐसे सुंदर मनोहारी वातावरण में बागों में झूले लहकते हैं और कजली गाई जाती है। वर्षा ऋतु में उमड़ते-घुमड़ते बादलों से आच्छादित आकाश के नीचे खुले मैदान में कजली गीतों को लोक मानस गाता है। किसान और किसानिन अपने खेतों में धान की रोपनी करते समय भी कजली गीतों को बड़ी तल्लीनता से गाते हैं। भवानी प्रसाद मिश्र ने अपनी एक कविता जो की वर्षा ऋतु पर है उसमें उन्होंने बड़े सुन्दर ढंग से इसका जिक्र करते हुए लिखा है कि-“खेतों में खड़ी किसानिन कजरी गाए री”। वर्षा ऋतु में काले कजरारे बादलों के साथ ही कजली गाई जाती है। संभवत इसीलिए इसका नाम कजली पड़ा है।
कुछ पुस्तकों में ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि कजली वन (एक स्थान) में गाए जाने के कारण इसका नाम कजली पड़ा या फिर सावन-भादों की शुक्ल पक्ष की तीज (जिस दिन कजली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं) का नाम ही कजली तीज है। इस कारण भी इसका नाम कजली पड़ गया ऐसा जान पड़ता है। सावन में झूला झूलते और पेंग बढ़ाते समय गाया जाने वाला यह गीत बहुत ही मनोहारी होता है। वैसे तो पूरे उत्तर प्रदेश में कजली गाई जाती है किन्तु कुछ स्थान ऐसे हैं जहां की कजली बहुत अधिक प्रसिद्ध है जैसे—आजमगढ़, बनारस, मिर्जापुर, जौनपुर आदि।
जौनपुर के कजगांव में तो कजली मेला भी लगता है। लोककंठ में रचे-बसे इन कजली गीतों में श्रृंगारिकता के साथ ही पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं की सुन्दरतम अभिव्यक्ति भी देखने सुनने को मिलती है। बचपन में मुझे सौभाग्य से अपनी नानी मां का साथ मिला। वे बहुत ही कर्मठी, गुणी और भगवत भक्ति में लीन रहने वाली भद्र महिला थीं, उनसे मैंने बहुत से भजन, कीर्तन और कजली गीत सुने थे जो अब भी कुछ कुछ मेरी स्मृतियों में रचे-बसे हैं। जैसे—
झूला पड़ा कदम की डारीं झूलैं कृष्ण मुरारी ए हरी
जनक बगिया में राम और लखन चले, तोड़ने सुमन चले ना।
कृष्ण जनम लिए कैद की कोठरिया में, मथुरा नगरिया में ना।
कृष्ण कूदि गये कालीदह में जायके, गेंदवा गिराय के ना।
हरि हरि राम चंद्र जी से बैर किया सो हारा ए हरी।
हरि हरि नाथूराम राम हत्यारा बापू को मारा ए हरी आदि बहुत से कजली गीत मैंने अपनी नानी मां से सीखे थे।सबका उल्लेख तो यहां संभव नहीं है पर एक कजली जो मुझे बहुत ही प्रिय है उसका उल्लेख करती हूं—
*हरि हरि राम चंद्र जी से बैर किया हो हारा ए हरी। बैर तो क इलें उहै बन की घूंघुचिया रामा, अरे रामा सगरी देंहियां लाली मुख पर काला ए हरी।
बैर तो क इलैं उहै चकयी और चकौआ रामा, अरे रामा सगरो दिनवां साथ रात में बिलगैं ए हरी।
बैर त क इलैं उहै लंका के राजा रावण रामा,अरे रामा सोने की लंका जरि के भ इलीं राखी ए हरी।
बैर त क इलैं उहै मथुरा के राजा कंस रामा, अरे रामा कंस क भ इलैं विधंस लोग सब हुलसैं ए हरी।
हरि हरि राम चंद्र जी से बैर किया सो हारा ए हरी।
ये कजली गीत नासिरुद्दीनपुर (चंद्रबलीपुर) सठियांव, आजमगढ़ (मेरे ननिहाल) का है। इसी प्रकार जीयनपुर, बड़ा गांव मेरे मौसियान से कुछ गीत मुझे प्राप्त हुए। जैसे— बैठल कोप भवन में कैकेई मनवां मारके, घूंघटा उघारिके ना। जनम लिए नंदलाल आधीरात में ऋतु बरसात में ना। इसी प्रकार हंड़िया तहसील, प्रयागराज से एक अस्सी साल की वृद्ध महिला (जिनकी रिकॉर्डिंग मेरे शोधार्थी ने मुझे भेजा) द्वारा एक कजली गीत प्राप्त हुआ जो वियोग श्रृंगार का अच्छा उदाहरण है— हरे रामा पिया गए परदेस भेजहिं नांहिं चिठिया ए हरी। नाहीं भेजैं चिठिया नाहीं भेजैं च उपतिया रामा। हरे रामा लिखि लिखि भेजैं आपन मोर बिरोगवा ए हरी।
मिर्जापुर की कजरी भी बहुत प्रसिद्ध है। एक कजरी जो संयोग श्रृंगार का सुंदर उदाहरण है और मुझे प्रिय है, प्रस्तुत है— पिया मेंहदी लियादा मोती झील से जाके साइकील से ना। पिया मेंहदी लियावा छोटी ननदी से पिसावा, हमरे हाथ में लगावा कांटा कील से, जाइके साइकील से ना। इहै सावनी बहार माना बतिया हमार, कौनो फायदा ना निकली दलील से, जाइके साइकील से ना। पकड़ लेई बागबान चाहे हो जाई चलान, तोहके लड़िके छोड़ाइ लेब वकील से, जाइके साइकील से ना। मन में लागल बाटै साध,पूरा क इदा पिया आज, तोहपे सब कुछ निछावर क इलीं दील से, जाइके साइकील से ना।पिया मेंहदी लियादा— इस प्रकार लोककंठ में रचे-बसे इन गीतों को समेटने और सहेजने की आवश्यकता है, क्योंकि गीत ही मर जाएंगे तो क्या यहां रह जाएगा।
डा. मधु पाठक
राजा श्रीकृष्ण दत्त पीजी कालेज, जौनपुर।
ऋतु गीत-सावनी कजली
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