सुख मेरे हिस्से में कम था… या..!
दुनिया ने जिसको सुख समझा
वह मेरे लिए एक भरम था…
समझ सका यह ना मैं अब तक…!
जो रहा एकरस मेरा मन,
रहा एकरस ही मेरा चिंतन…
जान सका ना मैं….!
सुख-दुःख का कोई मरम…
सो… यह भी ना कह सकता मैं,
कि…सुख को भी दुःख सा ही,
जीने का मेरा अलग नियम था…
वैसे तो गुरुओं से था पाया ज्ञान,
सुख-दुःख सब है एक समान…
दोनों है जग-जीवन के शाश्वत विधान
लाख जतन करे मानव… पर…!
नियंत्रित करते सब केवल भगवान…
किया मनन तो मैंने पाया,
सुख-दुःख दोनों ईश्वर की माया…
जीवन के हर पल में है इनकी छाया…
फिर तो मुझको समझ में आया,
सुख के दिन निश्चित ही कम थे… पर..
कुछ कर जाने का वे दम थे…
तब परेशान जो करते मन को,
वह पहले वाले ही सब गम थे…!
अब यह सच कैसे बोलूँ…?
बदल सका ना तब खुद को मैं,
ना बदल सका कोई तौर-तरीके…
और तो और.. कहूँ क्या मैं तुमसे..?
दुःख को कर अतिशय घनीभूत,
कर न सका मैं सुख को अनुभूत…
पर हाँ…. एक सबक तो सीखा मैंने..!
दुनिया की यह रीति रही…
गले लगाया सुख में जिनको,
जिनको आदर-सत्कार दिया…
दुःख में वे सब हुए बिलल्ला,
सीधे ही सबने दुत्कार दिया…
कैसे कहूँ… किससे कहूँ मैं मित्रों…?
नौबत बज़ती थी… रौनक रहती थी…
कभी दरवाजे पर मेरे…
खड़े देखते थे सब लोग-बाग,
सुख के ऐसे मेले को….
दिन बदला… दुःख जो आया…!
ना कोई स्वीकार करे… ना माने कोई..
कुदरत के इस अलबेले खेले को….
ना कोई अब सामने आता,
जो बाँट सके… या फिर जान सके…
मेरे मन के अकेले को… और कहूँ तो..
दुःख के इस झमेले को….!
दुःख के इस झमेले को….!
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज