अजय कुमार लखनऊ
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समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव जिस तरह से यूपी की सभी 80 सीटों पर जीत का दावा किया, वह हकीकत कम फसाना ज्यादा है। जब तमाम मीडिया सर्वे रिपोर्ट इंडी गठबंधन को मात्र 9 सीटें दे रहे हो तब, सपा प्रमुख को 80 सीटें जीतने का दावा करने की बजाये इस ओर ध्यान देना चाहिए कि कैसे वह जनता के बीच अपना जनाधार बढ़ाये। इसके लिये उन्हें और उनकी पार्टी को जन विश्वास हासिल करना पड़ेगा। सिर्फ जुबानी खर्च से समाजवादी पार्टी का कुछ भला नहीं होने वाला है। इसके लिये अखिलेश को कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। वह यदि अपने पिता और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की ही ‘राह’ पकड़ लें तो उनका ‘उद्धार’ हो जायेगा। नेता जी को ऐसे ही धरती पुत्र नहीं कहा जाता था। उनका जनता से बहुत अच्छी ट्यूनिंग थी। उन्हें वोटरों की नब्ज की पहचान थी। आज मुलायम सिंह भले ही इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपनी राजनैतिक ताकत कैसे बढ़ाई थी, इसकी जानकारी तमाम लोग रखते हैं। खासकर अखिलेश के चचा शिवपाल यादव को तो अपने बड़े भाई नेताजी मुलायम सिंह यादव का हनुमान तक कहा जाता था। जो आज भी अखिलेश के लिये ‘संजीवनी’ साबित हो सकते हैं लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है जिसकी वजह से अखिलेश का आत्मविश्वास काफी कमजोर पड़ गया है जिसके चलते वह कभी-कभी सपा की सियासी पिच से हटकर भी बैटिंग करने लगते हैं। बाद में उन्हें इसका नुकसान भी उठाना पड़ता है। इसी के चलते अखिलेश की राजनैतिक दूरदर्शिता को लेकर सवाल भी उठने लगे हैं। अयोध्या में रामलला के मंदिर से दूरी बनाना, पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटना पर चुप्पी, माफिया मुख्तार अंसारी के सजायाफ्ता भाई अफलाज अंसारी को लोकसभा सभा का टिकट देने का फैसला इसके चंद उदाहरण हैं।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव यदि यूपी की जनता का मिजाज जानते समझते होते तो लगातार उन्हें हार का सामान नहीं करना पड़ता। अखिलेश आज तक कोई बड़ा चुनाव नहीं जीत पाये हैं। यहां तक की 2012 मंे जब अखिलेश की सरकार बनी थी तब भी इस जीत का सेहरा पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीन समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के सिर बंधा था। कहा तो यहां तक जा रहा है कि समाजवादी पार्टी ने पीडीए के नाम पर एक बड़े वोट बैंक को नाराज कर दिया है। सवर्ण मतदाताओं और नेताओं का पार्टी पर से विश्वास उठ गया है लेकिन इसको गंभीरता से लेने की बजाये अखिलेश दूसरों पर अंगुली उठाते रहे। अखिलेश यादव की अपने राजनैतिक विरोधियो ही नहीं पत्रकारों पर भी तंज कसने की आदत पड़ गई है जो सही नहीं है। इसकी जगह उन्हें इस बात पर ध्यान देना होगा कि क्यों उसके नेता पार्टी का साथ छोड़ते जा रहे हैं? अखिलेश को गौर करना होगा कि उन्होंने सनातन धर्म के खिलाफ अनाप-शनाप बयानबाजी करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या को क्यों खुली छूट दे रखी थी? प्रभु रामलला के मंदिर से दूरी बनाकर उन्होंने क्या हासिल किया? राज्यसभा चुनाव में जिस तरह से उसने समाजवादी विचारधारा से इतर दो उम्मीदवारों को चुनाव लड़ाया उससे पार्टी को कितना नुकसान हुआ? प्रदेश की 10 राज्यसभा सीटों के लिए पिछले दिनों हुए चुनाव में पार्टी ने तीन प्रत्याशी खड़े किए थे। इनमें दो अगड़े व एक दलित चेहरा था। राज्यसभा प्रत्याशियों में ‘पीडीए’ को तवज्जो न देने से सबसे पहले सपा विधायक पल्लवी पटेल ने नाराजगी जताई। उन्होंने केवल दलित प्रत्याशी को ही वोट दिया। इस चुनाव में सपा का प्रबंधन बिखर गया और उसके 7 विधायकों ने क्रास वोटिंग कर दी। एक विधायक ने गैरहाजिर होकर भाजपा की परोक्ष रूप से मदद कर दी।
खैर, सवाल यह भी है कि सपा प्रमुख ने पिछड़ों-दलितों और मुसलमानों (पीडीए) के वोट बैंक के चक्कर में अन्य बिरादरियों से क्यों दूरी बना ली? अखिलेश से यह भी सवाल किया जायेगा कि अभी तक वह समाजवादी पार्टी के समर्थन में जन सभाएं क्यों नहीं शुरू कर पाये हैं? जबकि बिहार में तेजस्वी यादव लगातार जमीन पर संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं।कांग्रेस की न्याय यात्रा चल रही है जिसके द्वारा यह नेता वोटरों से सम्पर्क कर रहे हैं। सपा प्रमुख से पूछा यह भी जायेगा कि वह पार्टी के दिग्गज नेताओं और गठबंधन के सहयोगियों को अपने साथ जोड़े क्यों नहीं रख पाये? जिसके चलते राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी ने उनसे नाता तोड़कर एनडीए ज्वांइन कर ली। इसी के चलते अभी तक पश्चिमी यूपी में आगे दिख रही सपा बैकफुट पर आ गई है। सपा के थिंक टैंक से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती है कि वह अपनी चुनावी रणनीति का खुलासा सार्वजनिक कर देंगे परंतु अभी तक ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा है जिससे इस बात का आभास हो पाये कि सपा नेतृत्व तय रणनीति के तहत आगे बढ़ रहा है।
बहरहाल तमाम किन्तु-परंतु के बीच उनके समर्थक और वोटर यह भी जानना चाहते हैं कि समाजवादी पार्टी की सियासी रणनीति क्या है? समाजवादी पार्टी के लिये कोई एक बात अच्छी हुई है तो वह यह है कि अभी भी मुस्लिम वोटरों का समाजवादी से विश्वास हटा नहीं है। खासकर कांग्रेस को साथ लेने के बाद मुस्लिम वोटर सपा के साथ और भी मजबूती के साथ खड़े नजर आ रहे है। यूपी की 80 लोकसभा सीटों के लिए होने वाले चुनाव में सपा-कांग्रेस के बीच जो गठबंधन हुआ है, उसके अनुसार कांग्रेस 17 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि 63 सीटों पर सपा लड़ेगी। सपा अपने कोटे से इक्का-दुक्का सीटें छोटे दलों को भी दे रही है। अब तक सपा 30 प्रत्याशी घोषित कर चुकी है लेकिन इसके बाद अन्य सीटों पर प्रत्याशियों के नाम की घोषणा का सिलसिला थम गया है। कांग्रेस तो एक भी सीट पर प्रत्याशी तय नहीं कर पाई है जबकि चुनाव के लिय अधिसूचना जारी होने में मात्र गिनती के दिन बचे हैं। कुल मिलाकर यूपी फतह करने के लिये अखिलेश को सबसे पहले अपने गिरेबां में ही झाकना होगा।
उधर राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी के बीजेपी के साथ जाने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी के लिये नई मुसीबत बन गया है। रालोद के अलग होने से पश्चिम यूपी में जो नुकसान सपा को होने की उम्मीद है, उसकी भरपाई के लिए पार्टी अपने जाट व मुस्लिम नेताओं को आगे बढ़ा रही है, मगर जयंत के सामने अखिलेश की ताकत कम दिखाई दे रही है जिसकी भरपाई करने के लिये ही सपा ने मुजफ्फरनगर सीट पर पूर्व सांसद हरेंद्र मलिक को प्रत्याशी बनाया है। अखिलेश ने आजमगढ़ सीट पर भी किले बंदी करने के लिए बसपा के शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है। सपा गुड्डू जमाली की वजह से ही वर्ष 2022 में आजमगढ़ लोकसभा सीट का हुए उपचुनाव मात्र 8679 मतों से हार गई थी। गुड्डू को 2,66,210 वोट मिले थे। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा व बसपा मिलकर लड़े थे। सपा 37 सीटों पर लड़कर मात्र 5 जीत सकी थी जबकि 2014 के चुनाव में भी वह 78 पर लड़कर भी 5 सीटें जीती थीं। भाजपा करीब 50 प्रतिशत मत मिलने के साथ 62 सीटें अकेले जीती थी। इस बार बीजेपी ने 80 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है लेकिन राजनैतिक पंडित बीजेपी के 72 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं जो 2019 के लोकसभा चुनाव से दस अधिक है। वहीं 2022 के विधानसभा चुनाव की बात की जाय तो तब सपा को 32.06 प्रतिशत मत मिलने के साथ ही 111 सीटों पर जीत मिली थी। भाजपा को 41.29 प्रतिशत मत व 255 सीटें मिली थीं। वर्ष 2017 के चुनाव में उसे 21.82 प्रतिशत मत व 47 सीटें मिली थीं। अखिलेश मानते हैं कि ‘पीडीए’ में 49 प्रतिशत पिछड़े, 16 प्रतिशत दलित व 21 प्रतिशत अल्पसंख्यक (मुस्लिम, सिख, बौद्ध, ईसाई, जैन व आदिवासी) यानी कुल 86 प्रतिशत हैं। इनमें से कितने वोट पर सपा सेंधमारी कर पाती है, यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे जबकि समाजवादी पार्टी प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल ने कहा कि विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए में शामिल सपा व कांग्रेस दोनों मिलकर भाजपा को सभी 80 की 80 लोकसभा सीटों पर हराएंगे। 10 वर्ष की भाजपा सरकार के बावजूद समाज का हर वर्ग आज महंगाई, बेरोजगारी व बिगड़ी कानून व्यवस्था से परेशान है। किसानों की आय दोगुणी नहीं हुई। साथ ही उन्हें फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल रहा है। सरकार हर चीज में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है, ताकि आरक्षण को खत्म किया जा सके। सरकार ने जान—बूझकर सिपाही भर्ती का पेपर लीक करा दिया, ताकि उसे नौकरी न देनी पड़ा। जनता इस सरकार से ऊब चुकी है। इस बार पीडीए ही एनडीए को हराएगा।
यूपी फतह के लिये अखिलेश को अपने गिरेबां में झांकना होगा
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