Monday, April 29, 2024
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जीभ चटपटी… सोच अटपटी…

जीभ चटपटी थी…. या फिर….
हम सबकी सोच अटपटी थी…
याद नहीं अब आता…
पर… सच मानो….!
बचपन में जब भी देखा हमने…
ठेले पर बिकता चाट-बतासा…
पूरे ठेले भर का खाने को….!
हो जाता था सबका मन रुआँसा
पेट बड़ा था शायद तब….
या कि मन की सोच अलग थी
पर यह तो सच था कि….
ना माथे पर कोई सिलवट होती,
ना चिंता करने की कोई गरज थी….
बस लप-लप जिह्वा करती थी,
इसकी ही प्यास बुझाने को….!
हमने चोरी कर लेने की भी,
मेहनत से तब आदत डाली थी.. और..
चोरी-चुपके से बापू की जेबों से,
हम सब ने… कभी न कभी….
रुपया-अठन्नी और चवन्नी,
ज़रूर निकाली थी….
और मजे की बात सुनो ….
मौका देखा…. माहौल तड़ा…
झटके से जाकर…. अकेले ही….!
चाट-बतासे हम सब ने खाई थी….
अब इसके आगे की भी सुन लो …!
पेट कभी भरा ना इससे,
याद अभी भी हैं….!
तीखी मिर्ची वाले किस्से….
जो कड़वाहट चढ़ी खोपड़ी पर,
दौड़ लगाई थी हम सब ने सरपट…
जो कुछ छुपा रखा था हमने…!
सबके सामने आया झटपट….
फिर तो शुरू हुई हम सबमें खटपट…
कुछ ऐसे ही बीता है शायद….!
हम सब का बचपन नटखट…पर…
मित्रों…. अब बुझे मन से कहता हूँ….
बीत गया वह दौर सुहाना….!
बीत गया वह प्यारा बचपन,
इच्छाएं अब तो खुद ही सीमित हैं…
सपने भी सब दबे पड़े हैं…. मन में…
ठेले वाले चाट-बतासों की….!
बस यादें हैं अब ज़ेहन में….
क्योंकि…जीवन तो अब बीत रहा है..
चाऊमिन-मोमोज-मंचूरियन… और..
स्नैक्स-कॉर्न फ्लेक्स के फैशन में……
इससे आगे और कहूँ तो….
भटक गया है…. आज का बचपन….!
आभासी दुनिया के कोपभवन में….
और बैठ वहीं पर…. बस जल्दी से….!
सब कुछ संचित करने के सम्मोहन में
सब कुछ संचित करने के सम्मोहन में

रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त लखनऊ।

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