Sunday, April 28, 2024
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रिटायर्डमेंट के बाद जज साहब पर क्यों ‘बरसती’ हैं सरकारी मेहरबानियां?

संजय सक्सेना, लखनऊ
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा वाराणसी की जिला अदालत के एक विद्वान न्यायाधीश को रिटायर्डमेंट के एक माह के भीतर ही एक विश्वविद्यालय का लोकपाल नियुक्त किये जाने के निर्णय पर राजनीति शुरू हो गई है। वहीं मुस्लिम धर्मगुरू और बुद्धिजीवी भी योगी सरकार के इस फैसले पर सवाल खड़े कर रहे हैं। राजनीति शुरू होने का कारण है इन जज साहब द्वारा अपने अंतिम कार्य दिवस पर ज्ञानवापी मस्जिद के दक्षिणी तहखाने में हिंदू पक्षकारों को प्रार्थना और पूजा करने की अनुमति देना। बात 31 जनवरी 2024 को सेवानिवृत्त हुए जिला न्यायाधीश डॉ एके विश्वास ही हो रही है जिनको उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित संस्थान डॉ. शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय लखनऊ का लोकपाल नियुक्त किया गया है। हालांकि विश्वास की नियुक्ति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के मानदंडों के अनुसार है जिसके लिए विश्वविद्यालयों को छात्र मुद्दों को संभालने के लिए एक लोकपाल नामित करने की आवश्यकता होती है। यूजीसी के सर्कुलर के अनुसार लोकपाल सेवानिवृत्त कुलपति, प्रोफेसर या जिला न्यायाधीश हो सकता है।
गौरतलब हो कि विश्वास तब सुर्खियों में आये थे जब न्यायाधीश ने 31 जनवरी को रिटायर्ड होने के अंतिम दिन अपने आदेश में कहा था कि ज्ञानवापी मस्जिद के दक्षिणी तहखाने में उचित व्यवस्था की जानी चाहिए और काशी विश्वनाथ ट्रस्ट बोर्ड द्वारा नामित पुजारी द्वारा पूजा की जानी चाहिए। यह आदेश हिंदूवादियों द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद के विवादित भूमि के तहखाने में पूजा का अधिकार मांगने वाली याचिका में पारित किया गया था। लोकपाल पद कि लिए 10 साल के अनुभव वाले रिटायर्ड जज की योग्यता चाहिए थी। इसके अलावा दस साल के अनुभवी प्रोफेसर भी आवेदन दे सकते थे।
पूरे घटनाक्रम पर नजर डाली जाय तो न्यायाधीश अजय कृष्ण विश्वेश्वर ने पिछले साल 21 जुलाई ज्ञानवापी परिसर के एएसआई सर्वे के आदेश दिए थे कि क्या मौजूदा संरचना से पहले यहां हिन्दू मंदिर था या नहीं। उन्होंने इसी साल 25 जनवरी को एएसआई की रिपोर्ट वादियों को सौंपने के भी निर्देश दिए इसके अलावा उन्होंने अपने अंतिम कार्य दिवस 31 जनवरी को ज्ञानवापी के दक्षिणी तहखाने में पूजा की अनुमति का आदेश भी दिया था। जिला कोर्ट के आदेश के बाद तत्काल ज़िलाधिकारी और काशी विश्वनाथ ट्रस्ट के अधिकारियों ने व्यास जी के तहखाने में पूजा अर्चना शुरू कर दी थी। यहां तक पहुंचने के लिए नंदी जी के बगल से बैरिकेडिंग कर रास्ता बनाया गया और दूसरी व्यवस्था की गईं।
अजय कृष्ण विश्वेश मूल रूप से हरिद्वार के रहने वाले हैं। उनका जन्म 7 जनवरी 1964 को हुआ था। विश्वेश ने जून 1990 में मुंसिफ कोटद्वार, पौडी गढ़वाल में अपनी न्यायिक सेवा शुरू कीं 1991 में उनका ट्रांसफ़र सहारनपुर हो गया। इसके बाद वो देहरादून में भी न्यायिक मजिस्ट्रेट बने। उन्हें 2021 में जिला और सत्र न्यायाधीश, वाराणसी के रूप में तैनात किया गया था।
वैसे यह पहला मौका नहीं है जब किसी जज को किसी सरकार ने रिटायरमेंट के तुरंत बाद किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठाया है। पिछले 10 वर्षों में करीब 28 जज रिटायर्ड हुये, उसमें से छ: को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई। विश्वास की तरह जस्टिस आदर्श गोयल 6 जुलाई, 2018 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था, उसी दिन वह शीर्ष अदालत से सेवानिवृत्त हुए थे। इसी प्रकार न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा, जिन्होंने 6 साल से अधिक समय तक शीर्ष अदालत के न्यायाधीश का पद संभाला था, को उनकी सेवानिवृत्ति के लगभग एक साल बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। वहीं 4 जुलाई 2021 को कार्यालय छोड़ने के बाद न्यायमूर्ति भूषण को 8 नवंबर 2021 को राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था तो 22 दिसंबर 2022 को केंद्र सरकार ने न्यायमूर्ति गुप्ता को नई दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (एनडीआईएसी) के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया था जो संस्थागत मध्यस्थता के लिए एक स्वतंत्र और स्वायत्त शासन बनाने के उद्देश्य से स्थापित एक निकाय है। सेवानिवृत्ति के बाद न्यायमूर्ति नज़ीर अब आंध्र प्रदेश के 24 वें राज्यपाल के रूप में कार्यरत हैं। इन्हें भी रिटायर्डमेंट के महीने भर के भीतर राज्यपाल बना दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में सेवानिवृत्ति के बाद की सबसे चर्चित नियुक्तियों में से एक पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई की थी जिन्हें कार्यालय छोड़ने के छह महीने के भीतर राज्यसभा सदस्य के रूप में नामित किया गया था। गोगाई ने श्री रामजन्मभूमि का ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। जस्टिस गोगोई को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राज्यसभा के लिए मनोनीत किया था। पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने राज्यसभा के सभापति की उपस्थिति में राज्यसभा में संसद सदस्य के रूप में पद की शपथ ली है।
गौरतलब है कि शीर्ष अदालत के कई न्यायाधीशों ने अतीत में रिटायरमेंट के बाद कोई नौकरी नहीं लेने की बात कही है जिनमें जस्टिस जस्ती चेलामेश्वर पूर्व सीजेआई जेएस खेहर, आरएम लोढ़ा और एसएच कपाड़िया शामिल हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक प्रणाली शुरू करने की मांग करते हुए एक क्रांतिकारी प्रस्ताव भी पेश किया था जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति से 3 महीने पहले एक विकल्प दिया जाएगा कि या तो उनकी सेवानिवृत्ति के बाद 10 और वर्षों के लिए पूर्ण वेतन (अन्य लाभों को घटाकर) प्राप्त करें या कानून के तहत निर्धारित पेंशन प्राप्त करें। पूर्ण वेतन का विकल्प चुनने वालों को ही उन पदों के लिए चयन के लिए सूचीबद्ध किया जाएगा जिनके लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की आवश्यकता होती है। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने सुझाव दिया था कि ऐसे न्यायाधीश जो पूर्ण वेतन का विकल्प चुनते हैं, उन्हें मध्यस्थता सहित कोई भी निजी काम करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
पूर्व सीजेआई दीपक मिश्रा के विदाई समारोह के दौरान तत्कालीन अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने इस विषय पर विचार किया था। उन्होंने देखा कि न्यायाधीशों को उनके अनुभव की चौड़ाई को देखते हुए अधिनिर्णयन जारी रखने की अनुमति दी जानी चाहिए। कार्यक्रम में बोलते हुए, वेणुगोपाल ने टिप्पणी की, “मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं कि न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों को स्वीकार नहीं करना चाहिए। न्याय करने के वर्षों और वर्षों के अनुभव को एक दिन वह दूर फेंक देगा।” वेणुगोपाल की टिप्पणियां दो दिन पहले बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के अध्यक्ष मनन मिश्रा द्वारा जारी एक बयान के संदर्भ में की गई थीं। जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन जोसेफ की अगुवाई में मिश्रा ने पूर्व सीजेआई से अनुरोध किया था कि सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी नौकरी करने से परहेज करें। हाल ही में एक साक्षात्कार में, न्यायमूर्ति एमआर शाह ने स्पष्ट किया कि वह इस तरह का कोई पद नहीं लेंगे। न्यायमूर्ति शाह ने कहा था, “सुप्रीम कोर्ट के बाद इन भूमिकाओं में न होने के मेरे अपने कारण हैं। “हालांकि, जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने बार कहा था कि जजों द्वारा इस तरह की भूमिका निभाने पर कोई रोक नहीं है।
इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एसके कौल के विचारों को भी सुनना जरूरी है जो कहते हैं कि संवैधानिक अदालतों के पूर्व न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी जिम्मेदारी संभालनी चाहिए या नहीं, यह मुद्दा सेवानिवृत्त न्यायाधीशों पर ही छोड़ा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति कौल ने बीते साल के आखिरी दिन एक मीडिया समूह को दिये साक्षात्कार में कहा, ’यह संवैधानिक अदालत के न्यायाधीश पर छोड़ दें कि वह क्या करना चाहते हैं।’ उन्होंने कहा, ’पद दो तरह के होते हैं। एक है न्यायाधिकरण जहां किसी को न्यायाधिकरण का संचालन करना होता है। लोग ऐसे कार्यों को स्वीकार करते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है।’ न्यायमूर्ति कौल के नेतृत्व वाली शीर्ष अदालत की पीठ ने सितंबर 2023 में एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें यह अनिवार्य करने का आग्रह किया गया था कि न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के दो साल बाद तक ऐसी कोई जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करनी चाहिए। पीठ ने कहा था कि यह शीर्ष अदालत का काम नहीं है कि वह किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद की पेशकश स्वीकार करने से रोके या संसद को, उसके प्रभाव के लिए कोई विशिष्ट कानून बनाने का निर्देश दे. शीर्ष अदालत बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें स्वतंत्र न्याय पालिका पर ऐसी नियुक्तियों के प्रभाव को लेकर चिंता व्यक्त की गई थी।

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