Monday, April 29, 2024
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भारत का संविधान, न्याय पालिका और समान नागरिक संहिता

डा. दिलीप सिंह एडवोकेट
स्वतंत्रता के बाद भारत के सबसे चर्चित बिंदुओं में से समान नागरिक संहिता का बिंदु सबसे अधिक चर्चित रहा है और इस बिंदु पर उच्चतम न्यायालय ने बार-बार सभी केंद्र सरकारों को समय-समय पर निर्देश दिया कि वह पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करें लेकिन इसके ऊपर आज तक कोई काम नहीं हुआ है। अब कहीं जाकर भाजपा द्वारा आधे अधूरे मन से इस पर काम किया जा रहा है तो पूरा विपक्ष इस पर रोड़ा अटकाने में लगा हुआ है। आइए देखें कि आखिर समान नागरिक संहिता है। क्या और क्यों, यह इतना महत्वपूर्ण है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि भारतीय संघ भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।
इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ कि इसके लागू हो जाने पर कोई भी व्यक्तिगत विधान नहीं रह जाएगा, बल्कि सभी एक समान हो जाएंगे। जैसे विवाह का उत्तराधिकार का या अन्य किसी प्रकार का मामला यह देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे आवश्यक तत्व है जिसका कभी भी किसी भी सरकार द्वारा देश की एकता अखंडता और प्रगति के लिए पालन करने का प्रयास नहीं किया गया। परिणाम है कि देश आज भी एकता की दिशा में आगे नहीं बढ़ रहा है। इस बारे में यह बहुत ही उल्लेखनीय है कि समान नागरिक संगीता की बात करने वाली भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया है कि न्यायालय संसद को कोई कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकता है। समान नागरिक संहिता की मांग करने वाली सभी जनहित याचिकाओं को खारिज कर दिया जाए या उस सरकार की मंशा है जो अपने जन्मकाल से ही समान नागरिक संहिता की मांग करती रहेगी तो बाकी की समझ लीजिए खुद ही क्या मंशा रही होगी।
समान नागरिक संहिता क्यों है आवश्यक? भारत जैसे देश में विवाह विच्छेद भरण पोषण और गुजारा भत्ता और अन्य कानून एक जैसे हो जाएंगे और तमाम विसंगतियां दूर हो जाएगी। सभी नागरिकों को एक समान सुरक्षा मिलेगी और उनको लागू करना आसान हो जाएगा। इसके साथ उत्तराधिकार संबंधित अन्य सभी व्यक्तिगत कानून उसी तरह एक जैसे हो जाएंगे जिस तरह से पूरे देश में आपराधिक कानून के लिए भारतीय दंड संहिता और दंड संहिता प्रक्रिया लागू होती है। इससे देश का बहुत बड़ा लाभ होगा और न्याय पालिका को कार्य करना आसान हो जाएगा। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि बार-बार सर्वोच्च न्यायालय के अनुरोध और विधि आयोग के सुझाव के बाद भी सत्ता पक्ष या विपक्ष इसके बारे में गंभीर प्रयास नहीं करना चाह रहा है।
समान नागरिक संहिता की पृष्ठभूमि और इतिहास समान नागरिक संहिता की अवधारणा का विकास स्वतंत्र भारत में हुआ जब 1835 में ब्रिटिश सरकार ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि भारतीय विधान में एकरूपता लाने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। 1941 में इसके लिए प्रख्यात न्यायविद् बीएन राव की समिति गठित की गई इस समिति में सनातन धर्म के हिंदू सिख जैन बौद्ध के लिए निर वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित एवं लिखित करने पर बल दिया गया। उसी के आलोक में 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम विधेयक बनाया गया जबकि इसमें मुस्लिम, ईसाई, पारसी लोगों को छोड़ दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय बार-बार सभी प्रकार के व्यक्तिगत कानूनों को एक समान रूप में लागू करने पर बल देता रहा।
इस संदर्भ में 1985 में शाह बानो केस में इसके बाद 1995 सरला मुद्गल मुकदमों में स्पष्ट रूप से दिशा निर्देश दिया गया लेकिन बार-बार इन पर सत्ता पक्ष और विपक्ष नेमौलिक अधिकारों का हवाला देते हुए समान नागरिक संहिता बनाने में रुचि नहीं दिखाई। व्यावहारिक एवं आपराधिक मामलों मेंएक समान कानून का पालन किया जा रहा है। जब आपराधिक और व्यावहारिक अर्थात शरीर और क्रिमिनलमामलों में एक समान नीति पूरे भारत में है तो फिर एक समान नागरिक संगीताव्यक्तिगत विधान में बनाया नहीं जाना बड़ा ही खेत जनक है। भारत में पहले ही भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872 नागरिक प्रक्रिया संहिता संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम 1892 भागीदारी अधिनियम 1932 और साक्ष्य अधिनियम 1872लागू है। इसी कड़ी में एक और अवरोध उत्पन्न हुआ जब 2019 में कई राज्यों ने मोटर वाहन अधिनियम 2019 एक समान रूप से लागू करने से इंकार कर दिया था जबकि वर्तमान में सर्वाधिक विविधता वाला गोवा भारत का एकमात्र ऐसा राज्य बन गया है जहां समान नागरिक संहिता लागू है।
एक समान नागरिक संहिता के लाभ एक समान नागरिक संहिता लागू हो जाने से महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यक को संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा मिलेगी और देश की राष्ट्रवादी भावना बढ़ेगी देश की एकता अखंडता को बल मिलेगा। इसके अलावा भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप ही बना रहेगा, क्योंकि इसमें अलग-अलग नियम भारत के धर्म निरपेक्षता एकता और अखंडता के विरुद्ध इतना ही नहीं, बल्कि समान नागरिक संहिता लागू होते ही सभी व्यक्तिगत अपने आप समाप्त हो जाएंगे। लैंगिक पक्षपात और अन्य समस्याओं से अच्छी तरह से निपटा जा सके। इसके अलावा भी अनेक लाभ हैं जिस पर राजनीतिक दल जान—बूझकर और नूरा कुश्ती के तहत समान नागरिक संहिता पर जान—बूझकर काम नहीं करना चाहते हैं।
समान नागरिक संहिता की राह में चुनौतियां समान नागरिक संहिता की राह में सबसे बड़ी चुनौती स्वयं सत्ता पक्ष और विपक्ष है और राजनेता तथा कुछ बुद्धिजीवी यह कहते हैं कि विभिन्न धर्म और समुदायों के रीति रिवाज बहुत अलग-अलग और भिन्न होते हैं। जैसे कि सजा दी और सगोत्र विवाह शिया, सुन्नी रोमन, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि में अलग-अलग नियम लागू होना। इसके अलावा खुद संविधान नहीं, बल्कि नागालैंड मेघालय और मिजोरम के स्थानीय रीति-रिवाजों को सुरक्षित किया है। और भी अनेक व्यक्तिगत विधान है जो बहुत अधिक अलग-अलग हैं। इसके कारण एक समान नागरिक संहिता लागू करने में बहुत अधिक अड़चन आएगी। इसके अलावा इसमें सांप्रदायिकता की राजनीति तथा अनुच्छेद 25 जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता देता है तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 समानता और स्वतंत्रता के राह पर इसको बाधक मानते हुए दिखाया जाता है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। यह सब केवल राजनीतिक कारण है, क्योंकि विभिन्न जातियों, धर्म और वर्गों में सिविल और क्रिमिनल कानूनों में भी बहुत भिन्नता थी लेकिन अब वह समाप्त हो चुकी है।
कैसे लागू हो सकती है समान नागरिक संहिता?
अगर सत्ता पक्ष और विपक्ष राजनीति को छोड़ दें तो समान नागरिक संहिता 1 सप्ताह में लागू हो सकती है। अगर संविधान में सैकड़ों संशोधन हो सकते हैं। शाह बानो जैसे चर्चित मुकदमे के लिए संविधान बदला जा सकता है। संविधान में 42वां और 44वां में संशोधन करके उसकी मूल धारणा को ही बदला जा सकता है तो समान नागरिक संहिता और राज्य के नीति निर्देशक तत्व को लागू करना बहुत ही आसान है। इसके लिए केवल पर विश्वास का निर्माण होना आवश्यक है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो असंभव हो। कुछ अन्य महत्वपूर्ण बिंदु 2016 में विधि आयोग अर्थात लॉ कमीशन ने जनता की राय मांगी थी और इसमें गोलमोल उत्तर देकर इस मामले को दबा दिया गया था। 22 में विधि आयोग ने एक बार फिर देश से अपनी राय मांगी है कि लोग अपनी राय रखें। 30 दिन में मांगी गई सराय पर सरकार और मीडिया कोई भी उत्साहित नहीं दिख रहा है। हद तो तब हो गई जब भी दिया है, वह अपने मार्च 2018 में अपनी एक पक्षीय रिपोर्ट में कह दिया कि फिलहाल समान नागरिक संहिता की जरूरत देश को नहीं है। संविधान संविधान के निर्माता और सर्वोच्च न्यायालय विधि आयोग और सरकार की दृष्टि से कुछ भी नहीं है। यही हाल भारत के नीति निर्देशक तत्वों का हो रहा है जिसकी जिम्मेदारी लेने को कोई सत्ता पक्ष या विपक्ष तैयार नहीं है जबकि विधि और संविधान को अपने ढंग से बदलने में यह सभी माहिर हैं जबकि दुनिया के अधिकांश देशों में समान नागरिक संहिता लागू है जिनमें अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान, मिश्र जैसे दुनिया के अधिकतर देश भी शामिल हैं। इस देश में अभी उल्लेखनीय है कि 1930 में जवाहर लाल नेहरू ने समान नागरिक संहिता का समर्थन किया था।
उप संघार देश में एक समान नागरिक संहिता का तत्काल लागू किया जाना देश की एकता व अखंडता के लिए सभी धर्मों और संप्रदाय में परस्पर सौहार्द्र स्थापित करने के लिए और देश को एक और अखंड बनाने के लिए अत्यंत ही आवश्यक है। इसके विपक्ष में जो तर्क दिए जा रहे हैं, वह पूरी तरह नकारात्मक और काल्पनिक है। अगर देश का संसद क्षण भर में संविधान के मूल ढांचे को बदल सकता है। 4244 में संशोधन लागू कर सकता है और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को नियम लागू कर सकता है।
समान नागरिक संहिता लागू करने में कोई बाधा नहीं है। गहराई से देखा जाए तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों मिली और कुश्ती करते हुए देश में समान नागरिक संहिता लागू नहीं करना चाहता है और नीति निर्देशक तत्वों के प्रति उदासीन है क्योंकि उन्हें व्यक्तिगत स्वार्थ और कुर्सी अधिक प्रिय है।

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