शहर आया था,
कुछ कमाने को मैं…
देखी यहाँ कुछ अज़ीब दास्ताँ…!
स्वारथ में लोगों ने… कहा अपना…
पर सबका रहा मैं… सदा ही पराया…
धूप ही सदा जिंदगी रही,
बस अँधेरे की हरदम,
मिली मुझको छाया…!
डाँट मिलती रही हर ओर से,
किसी ने… कभी भी…
कहीं ना मुझको रिझाया…
पसीने की बूँदे गिरती रही…पर…
हर किसी ने… बेमुरौअत..
और ज्यादा ही थकाया-खटाया….
क्या और कैसे कहूँ तुमसे प्रभु मैं…!
ना तूने ही दिया कुछ मुझे प्रभु जी,
ना किसी से कभी कुछ दिलाया…
नादान ही रह गया उम्र भर…
दान लेना-दान देना… दोनों का मरम..
मुझे ना किसी ने सिखाया …!
बस इसी कारण प्रभु जी…
ना कोई परसाद मैंने चढ़ाया,
ना कोई पोशाक ही पहनाया…
ना दुनिया की नजरों में,
कभी मैं दानी कहलाया…!
जानता था… पाल सकता नहीं मैं…
मछलियों को आटा खिलाने का शौक
बस इसीलिए…..!
जरूरतमंदों को मैंने पानी पिलाया….
कुछ इसी तरह से मैंने…
अपने तन-मन को शीतल बनाया…
बाँट सकता नहीं था मैं…
गरीबों को जूते-चप्पलों की सौगात….
फिर मैंने खुद ही सड़कों से,
कंकड़-पत्थर को दूर हटाया….
बस कुछ इसी तरह से मैंने…
लोगों की राह का काँटा हटाया…
चला सकता नहीं था मैं लंगर कहीं
सो दोपहरी में मैंने…
अपनी थाली की रोटी का….
छोटा-छोटा निवाला बनाया…
फिर बुलाकर पंछियों को खिलाया…
कुछ इस तरह से….
मैंने अपना पेट भरा हुआ पाया…
मजदूर हूँ मैं…. मज़बूर भी हूँ….
शायद इसीलिए…
ढूँढ़ लेता हूँ मैं खुशियाँ इसी में,
अब दान मानो प्रभु इसे या…
ज्ञान अधूरा… मेरा जानो इसे…
छोड़ता हूँ प्रभु आप पर…!
आप दानी मानो या न मानो मुझे…!
आप दानी मानो या न मानो मुझे…!
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज