शंका…
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शंका….
एक मनोरोग है
मानसिक विकार है
स्वयं को
स्वयं से खत्म करने का
एक धीमा जहर है…..
यह स्वयं
न किसी समस्या का समाधान है
न इसका हीं कोई समाधान है
जिसे लग जय यह रोग
समृद्ध होकर भी वह
स्वयं बर्बाद है …..
क्लेश सदैव रहता है
बच्चे दिशा विहीन हो जाते हैं
परिवार विघटित हो जाता है
जिस घर को शंका ग्रस लेता है…..
व्यक्ती जो होता है शंकाग्रस्त
रहता है वह सदैव अवसादग्रस्त
स्वयं तो मरता ही है
उसमे जुड़ा व्यक्ति भी उस संग मरता है
सोच उसकी नकारात्मक हो जाती है
स्वयं का विनाश ही
उसकी प्रवृति हो जाती है….
शंका,
स्वयं को स्वयं का ग्रास है
जिसे ग्रस ले यह
न वह मरता है न जी पाता है
नर्क समान हो जाता है उसका जीवन…
जिस घर को शंका ग्रस ले
वह घर नर्क समान हो जाता है
न उस घर मे कोई जीता है
न उस घर मे किसी की जीने की इच्छा हीं रहती है
उस घर के उत्थान के सारे रास्ते बंद हो जाते है
और पतन के सारे रास्ते खुल जाते है…..
शंका ग्रस्त न स्वयं जीते है
न औरों को जीने देते है
खुशिया अपनी स्वयं अपने ही हाथों छीन लेते है
और जीते जी भी मरते रहते है….
शंका एक मनोरोग रोग है
जिसमें व्यक्ती को वह दिखता है
जो वास्तविक में होता ही नहीं
उसे वह सुनाई देता है
जो किसी ने कही ही नहीं होती
यही वास्तविकता से परे उसकी सोच
शंका को जन्म देती है
जो उसकी शारीरिक मानसिक और पारिवारिक
पतन का कारण होती है
और तबतक खत्म नहीं होती
जब तक वह स्वयं खत्म नहीं हो जाता….
सकारात्मक सोच इसका एकमात्र निदान है
वरना दीमक की तरह,
सब कुछ खत्म कर देता है भीतर ही भीतर
और अखिर सबकुछ खत्म हो जाता है
उस कारण से
जिसका कोई वज़ूद ही नहीं होता……
रचनाकार—— पंकज पाण्डेय
(निरीक्षक) रिट-सेल विभाग
पुलिस अधीक्षक कार्यालय सोनभद्र