ज्ञान-सुधा (अन्तिम भाग)
शास्त्र सुचिंता मृत्यु क्षण मन गति मानव ज्ञान।
नृपति चित्तअरु कृपण धन पतित मनोरथ भान।।
पुरूष भाग्य तिरिया चरित नव कर कठिन प्रमान।
दैव न जानै नव चरित क्यों कर मनुज बखान।।
धन गति संचय क्षय सदा उत्तम चरित महान।
भीख मागिबो धन मिलै मिलै नाहिं सम्मान।।
नृपबल सेना शस्त्रबल,विप्र सदा बल ज्ञान।
नारी बल यौवन मधुर वाणी रूप निधान।।
संशय कबहुं न कीजिये,बैद सुहृद गुरु संग।
जौ कबहूं भ्रम होइ हिय,तजिय तासु भ्रम भंग।।
अज्ञानी श्रद्धा विरत जेहिं हिय संशय वास ।।
सुख तेहिं मिलै न लोक महं होत बेगहीं नाश।।
ईश काहु दुख देत नहिं,सबहिं सदा सुख देत।
सोइ सुख अपरहिं होइ दुख नर आपुहिं दुख लेत।।
दुख भोगत सुख जब मिलै,समय देत बिसराय।
कौसिक सम सोइ सुख अवधि लागत तनिक जनाय।।
होहिं स्वजन गुणहीन बरु पर जन गुण की खान।
परजन से निज जन भलो सोइ हित आपुहिं जान।।
रिपु अहि विषधर संग भल गुण जाने संसार।
संग भलो नहि कपट मन बाहर दिखै उदार।।
सत्य धर्म पालक सदा ईश सत्य महं वास।
सत पालन शुचि भव विभव जगत सत्य कर दास।।
समय पाय बिनु प्रेरणा तरू उद्भव फल फूल।
तैसहिं संचित कर्म फल समय देत अनुकूल।।
रचनाकार: डाॅ. प्रदीप कुमार दूबे
(साहित्य-शिरोमणि)
शिक्षक/पत्रकार