वज़ह…!
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खुद के उदास होने का…!
मैं बेवज़ह…. वज़ह ढूँढता हूँ…
कोई मानेगा भला क्या…?
बरस चुके बादलों में,
मैं गरज ढूँढता हूँ….!
खूब जानता हूँ कि…
कोई हल नहीं है इसका… पर..
इसी बहाने मैं… खुद में…
हलचल ढूँढता हूँ….!
उदासियों से तो…
भरा है शरीर समंदर,
ज़ादू कर नहीं सकता
यहाँ कुछ कोई एक पत्थर
खाली ही पड़ा रहता हूँ,
अक़्सर रात-रात भर…!
इसलिए जागती आँखों से,
आसपास में डर ढूँढता हूँ…!
ताउम्र किताबों को,
करीने से पढ़ा इतना…
कि हो गया… समाज में…
बिल्कुल तनहा-तनहा…
बड़ी मुश्किल से… जब…
गुरुर इल्म का हुआ छू-मंतर…!
अब तो अपनों के दिल में भी,
अपने लिए जगह ढूँढता हूँ….
हैरान है अब तो आईना भी,
बदली हुई मेरी सूरत देखकर…
पर जाने क्या वज़ह है कि
इन उदासियों ने… जिंदा रखी है…
ख्वाहिशें मेरी… और….
आईने के सामने खड़ा होकर
मैं आईने में… अब भी अपनी..
पहले सी सूरत ढूँढता हूँ…
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद कासगंज।