संजय अस्थाना
लोकतंत्र की तीसरी आंख और चौथे स्तम्भ के रूप में जानी जाने वाली मीडिया आज स्वयं सवालों के घेरे में है जिससे मीडिया की साख को अवश्य ही बट्टा लगी है लेकिन क्या वास्तव में मीडिया अपनी साख को खो रही है या मीडिया को बदनाम करने की साजिश चल रही है या कोशिश हो रही है, इसलिये इस विषय पर मंथन आवश्यक है, ताकि मीडिया के गिरते स्वरुप को रोका जा सके और उसकी साख में वृद्धि हो या गिरते साख को सम्भाल कर उसकी निष्पक्षता की छवि को बरकार रखा जा सके।
सबसे पहले सभी को यह जानना आवश्यक है कि सत्ता या सरकार, न्याय पालिका, कार्यपालिका और मीडिया लोकतंत्र या प्रजातंत्र के 4 स्तम्भ होते हैं जिसमें मीडिया को लोकतंत्र की तीसरी आँख भी कहते हैं, क्योंकि यही मीडिया प्रजातंत्र के तीनों स्तम्भों पर नजर रखती है जिससे प्रजातांत्रिक प्रणाली सफलीभूत होती है और इसके कार्यों से ही सरकारी, गैरसरकारी इत्यादि फलीभूत कार्यों की प्रशंसा और असफल कार्यों की निंदा की जाती है, क्योंकि मीडिया एक ऐसा माध्यम है जो सच को सच और गलत को गलत बताता है और साथ में लोंगो सहित प्रजातंत्र के तीनों अंगों को सही राह दिखाता है।
भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों मीडिया से जुड़ा है, क्योंकि बीते समय होने वाले घटनाओं की विश्लेषण जहां मीडिया करती हैं। वहीं वर्तमान में घट रही घटनाओं पर उसकी तीक्ष्ण नजर रखती है और घट रही घटनाओं से संबंधित भविष्य में आने वाली परिणाम से अवगत कराती है लेकिन आज के दौर में मीडिया का स्वरूप 3 तरह की हो गई है। पहली ऐड न्यूज, दूसरी पेड न्यूज और तीसरी निष्पक्ष न्यूज जबकि मीडिया अपनी निष्पक्षता के लिए ही जानी जाती थी। खैर! ऐड न्यूज मीडिया या प्रचार सामग्री एवं टी.आर.पी. वृद्धि तो मीडिया के आय के स्रोत होते हैं जिससे मीडिया से संबंधित लोगों के ख़र्चे निकलते हैं जो उनकी जायज कमाई होती है लेकिन पेड न्यूज उनकी नाजायज कमाई के रूप में जानी जाती है जिससे मीडिया अपनी साख को अवश्य ही खोती जा रही है। मीडिया जब शासन-प्रशासन की पिछलग्गू हो जाये तो उसकी निष्पक्षता अवश्य ही संदेह के घेरे में आती है और जब यही मीडिया सरकार या विपक्ष की कारगुजारियों को सही ढंग से या सत्य रूप में परोसती है तो उसकी निष्पक्षता सिद्ध होती है और लोगों द्वारा अपनी वाह बाही को बटोरती है।
मेरी समझ से पेड न्यूज सही मायनों में आगे चलकर मीडिया के लिए डेथ न्यूज ही साबित होगी, क्योंकि तब लोग न मीडिया की बातों पर विश्वास करेंगे और न ही उसकी निष्पक्षता पर और यदि मीडिया हाउस और उनके पत्रकार बंधु-भगिनी समय रहते नहीं चेते तो केवल आज के भ्रष्ट नेताओं की तरह ही उन्हें भी लोंगों के कोप का भाजन बनना पड़ेगा। जिस देश के जड़ में भ्रष्टाचार समाई हो, उससे मीडिया भला कैसे दूर रह सकती है? यह प्रश्न मीडिया बन्धुओं द्वारा उठाया जाता है और फिर घर-परिवार बिना पैसे के कैसे चलेंगे? ये भी एक प्रश्न हो सकता है, क्या ईमानदारी अपनाकर मीडिया द्वारा लोगों की सेवा की जा सकती है?
पहले प्रश्न के जवाब में मेरा यही कहना है कि मीडिया का काम भ्रष्टाचार को उजागर कर उसके खिलाफ आवाज उठाना है न कि स्वयं उसका शिकार होना है। दूसरे प्रश्न का जवाब ये हो सकता है। घर-परिवार चलाने के लिए यदि किसी ने मीडिया ज्वाइन की है तो वे इस कार्य का परित्याग कर दें, क्योंकि मीडिया कभी भी घर-परिवार चलाने का साधन नहीं होता, अपितु सभी पर नजर रखना इसका कार्य है और मीडिया के आय के संबंध में चर्चा मैं इस लेख में कर चुका हूँ और तीसरे प्रश्न के उत्तर में मेरा ये कहना है कि ईमानदारी अपनाकर ही मीडिया द्वारा लोंगो के साथ देश के साथ पूरे विश्व की सेवा की जा सकती है, क्योंकि मीडिया एक सेवा का माध्यम है न कि कमाई का साधन।
आजकल मीडिया दो नये स्वरुप में भी आ गई है। पहली सरकार की मीडिया और दूसरी सोशल मीडिया और जहाँ सरकारी मीडिया का स्वरूप भद्द नजर आता है। वहीं सोशल मीडिया एक क्रांति के रूप में नजारे प्रदर्शित कर रही है और अब सोशल मीडिया पर बैठे प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको पत्रकार से कम नहीं समझते हैं। चाहे उनके पास शब्दों की शक्ति और लेखन की शैली उनके पास हो या न हो जिससे उनके द्वारा कही बातें कभी—कभी हास्यप्रद प्रतीत होती हैं और कभी-कभी उनकी बातों से अर्थ की जगह अनर्थ निकलते हैं लेकिन कुछ लेखक वैसी केटेगरी के नजर आते हैं जो पत्रकारिता जैसी सेवा में न होते हुए भी अपनी लेखनी द्वारा पत्रकारों की भी कान को काटते हैं और उनकी उम्दा लेखनी अवश्य ही भाव-विभोर करती है।
पत्रकारिता में शब्दों का चयन, लेखन की शैली से ही लेखनी सही रूप में परिभाषित होती है और भाषा के ज्ञान, विवेकपूर्ण लेखन से ही कोई भी पत्रकार, रचनाकार, लेखक, कवि इत्यादि प्रतिष्ठित होते हैं, इसलिये लेखन के स्वरूप को उम्दा रूप में ही समाज के सामने परोसनी चाहिये, क्योंकि पत्रकारों या एंकरों द्वारा कहीं बातों को तभी लोग तव्वजो देते हैं जब उनकी बातों में दम होता है। सनसनीखेज समाचारों को पीत पत्रकारिता की श्रेणी में रखा जाता है जिससे मीडिया का स्तर गिरता है, इसलिये पत्रकारों को पीत पत्रकारिता करने से बचनी चाहिए।
पैसे लेकर या पैसे देकर लिखी गयी न्यूज पूर्ण रूप से कभी भी सत्य नहीं होती, क्योंकि लेखक व्यक्ति विशेष, सरकार, विपक्ष और शासन-प्रशासन के पक्ष में ही लिखता है जबकि पत्रकारिता पूर्णतया निष्पक्ष ही होनी चाहिये। आजकल बड़े-बड़े मीडिया हाउस बन गये हैं जो अपने मातहत लोंगो में से कुछ का भरपूर ख्याल रखते हैं लेकिन ग्राम, एरिया या जिला स्तर के पत्रकारों का बिल्कुल ख्याल नहीं रखते हैं और उन्हें अपनी आमदनी में से हिस्सा नहीं देते हैं और नीचे पायदान पर बैठे पत्रकारों की आमदनी का साधन लोंगो या संस्थानों द्वारा दिये गये प्रचार-प्रसार सामाग्री का कमिशन ही होता है या पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता के मिले पैसे से जिसे आय का साधन कदापि नहीं माना जा सकता है। पत्रकारिता पेशा नहीं होता, अपितु यह सेवा का साधन है और सेवा निशुल्क ही होनी चाहिये और घर-परिवार चलाने के साधन कुछ और ही होना चाहिये न कि पत्रकारिता।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि पत्रकारिता जगत को पेड न्यूज से बचने का प्रयास करना चाहिये तभी सत्य बातों को परोसा जा सकता है जिससे सच्ची और अच्छी पत्रकारिता देखने को मिल सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)