एक दूज़े को चित करने की…
चोर-चोर मौसेरे भाई,
जग जाने है ऐसा भाई….
ऐसे सब भाईन के मेल करावै,
कलयुग में सरकारी जेल…
गाँव-देश के बचपन में….
हम सब कागज़ पर लिखकर…
अक्सर खेला करते थे
राजा-चोर-सिपाही वाला खेल…
बात-बात में चोर बनाते…पर…
कोई कभी न जाता जेल….
गाली-जूता खाकर भी,
हम सब में रहता था मेल…
जाने ऐसा क्या कुछ बदला…या…
बिधिना ने कुछ चाल चली…
कुछ की गाड़ी दौड़ पड़ी और
कुछ की बेपटरी हो गई रेल….!
कोतवाल जो बना बाद में,
मित्रों…वह कागज वाला चोर…
अनायास ही भारी होकर,
लगा खूब मचाने शोर….!
खुलकर कहता महफिल में
कुल करमन पर भारी है
अब तो प्यारे “मक्खन-तेल”….
अरदब में सब अधिकारी होवें,
अपराधी पावे जल्दी बेल…!
ऐसी कानूनी परिभाषा गढ़ता,
अपराधी देर से जाते जेल….
उसको अब मैं क्या-क्या समझाऊँ
बचपन से जो सुना है हम सबने
उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे,
इससे बढ़कर पगले…अब तो…
कोतवाल ही जाता जेल….
सुखद रहे दिन बचपन के
ना थी कोई भी ठेल-ढकेल
भरमाते हैं अब के अच्छे दिन,
हर तरफ है झेलम-झेल….
मानो या मत मानो मित्रों….!
राजा-चोर-सिपाही वाला,
गँवई खेला…हो गया है….
अब तो पूरा फेल….
गाँव-देश में चारों तरफ़,
एक दूजे को चित करने की…!
खूब मची है रेलम-पेल….
मित्रों…खूब मची है रेलम-पेल….
रचनाकार: जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज।