शहर की ओर
कहावत है कि…
जंगली जानवरों की,
जब मौत आती है…!
वे शहर की ओर भागते हैं…
अनुभवी लोगों ने
कही है…. लिखी है….
यह अनुभव की बात…
किंतु इस पर…
टिप्पणी करना कठिन है कि….
शहर और जंगल की .. उस समय,
क्या रही होगी परिभाषा….पर…
इतना तो सच है कि….
मनुष्यों के लिए यह कहावत…
कम से कम.. आज के दौर में तो..
एकदम ही सही नहीं है…
शहर आया हुआ मनुष्य…!
शामिल होता है… तत्काल…
कथित विकास के दौर में,
सीख लेता है… प्रतिस्पर्धा…!
सच माने में गलाकाट प्रतिस्पर्धा..
राजनीति के दाँव-पेंच….
शहर में… बहुत जल्दी ही…
वह सीख लेता है…
किसी की टाँग खींचना,
शहरी मायाजाल देखकर…और…
चकाचौंध में… अस्तित्व के लिए…
दाल में नमक की जगह…!
नमक वाली दाल पीना-पिलाना
एलीट क्लास वाला बिहेवियर,
माई डार्लिंग और माई डियर…
वह सीख लेता है….!
शहरी और दखिनहा में भेद…
इससे भी आगे जाकर,
वह सीख लेता है…
अपनों में ही भेद-विभेद…!
देखो तो मित्रों…
यह अजीब सी बात है न
जो पहले जंगल जाते थे
खुद करने आखेट…!
अब वह खुद ही शहर आता है
बन कर किसी का आखेट….!!
मनुष्यों के लिए शहर जाना…
सौभाग्य है या दुर्भाग्य…?
चाहूँगा इस पर टिप्पणी के लिए
आप पाठक…. खुद ही….
निकालें अपने अनुभवी वाक्य…!
आप पाठक…. खुद ही….
निकालें अपने अनुभवी वाक्य…!
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद कासगंज