तुलसी जीवन वृत्त
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(मानस माहात्म्य भाग-10)
मनु बोले प्रभु सन तदपि एक लालसा मोहिं।
मांगत मोहि बरु अगम प्रभु देत सुगम अति तोहिं।।
जग कहँ मनोरथ विज्ञ प्रभु अभिलाष पूरन कीजिये।
संकोच तजि नृप मांगु बर जोइ लालसा मन तव हिये।
प्रभु सरिस सुत उर लालसा जेहिं लागि कोटिहुं तप किये।
मन हरष अति मनु भाव निज प्रभु विरद जानि प्रगट किये।
निज सम अब जाइ खोजौं कहाँ नृप हम
सुत तव होइ जन्म लैहौं इहै भागि है।
शतरूपा कर जोरै कहैं प्रभु मांगु बर
नृप बर मोहिं प्रभु अति प्रिय लागि है।
मनु तिय कही नाथ हठ मेरो प्रिय तासों
विधिहूं के तात मन अति अनुराग है।
सोई मन जानि होत संसय प्रकृति वश
प्रभु जो कहा सो मानि बचन में राग है।।
निज भगत प्रभु जो गति लहै जो परम सुख शुचि पावहीं।
सोइ भक्ति गति तव चरन प्रेम विवेक मम उर भावहीं।
जेहिं जोनि जन्मउँ प्रीति पद प्रभु भक्ति अविचल चाहहीं।
पूरन मनोरथ होहिं सब शत प्रीति लखि बोले सही।।
मातु अनुग्रह मम कृपा कबहुं घटै नहि ग्यान।
सकल मनोरथ सिद्धि तव नहिं किछु संशय मान।।
बंदि चरन पुनि मनु कहेउ बिनय एक प्रभु और।
पुत्र जनक अनुराग सम नेह सदा सब ठौर।।
वरदान अस मनु मांगि पुनि प्रभु प्रीति पद पंकज गहे।
होइहिं मनोरथ सकल पूरन विहसि प्रभु मनु सन कहे।
अब जाहुं तुम कछु काल बसि अमरावती बहु सुख लहै।
पुनि अवध नृप जब होउगे हम पुत्र होइ तब आइहै।।
रचनाकार—— डाॅ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार