ढूढ़ते रह जाओगे
आदमी में आदमियत, ढूढते रह जाओगे।
इस जहां में नेक बंदे, अब बमुश्किल पाओगे।।
मुंह पर बातें, मुंह वाली, पीठ पीछे और कुछ।
सुनकर जाए और कुछ,प्रस्तुत करे वो और कुछ।।
कथनी बस उम्दा दिखे, करनी में फर्क पाओगे…
जी रहा है आदमी, दोहरे चरित्र को ओढ़कर।
अपने हित कानून अपना, दूजे से मुंह मोड़कर।।
न्याय के परदृश्य में, अन्याय को बस पाओगे…
रंग बदले आदमी का, मंजर जरा देखें यहां।
गिरगिटों से भी वो ज्यादा, रंग बदले है जहां।।
नेक नियति और इमां, अब कहां तुम पाओगे…
इसलिए तो गिद्ध भी, अब चल पड़े है छोड़कर।
सोचकर कि अब तो इंसान, नोचता है दर ब दर।।
सत जनों की धर्म वाणी, अब कहां सुन पाओगे…
लोग अब सुनते नहीं, सज्जनों की सत कहीं।
असत के साम्राज्य में सत तो अब दिखता नहीं।।
द्वंद का है घुंघ फैला, सब जगह अब पाओगे…
बाहरी है बस दिखावा, अंदर, कलुषता है भरी।
आज जीवन की रंगोली, दिखती है, विषभरी।।
कौन अपना है, पराया, खोजते रह जाओगे…
रचनाकार— डा. डीआर विश्वकर्मा
सुंदरपुर, वाराणसी।