तुम तो ठहरे काशीवासी!
ना सँकरी गलियाँ दिखतीं,
ना हैं माटी के अखाड़े…
ना कोई उत्सव दिखता,
ना बजते कहीं नगाड़े….
ना कहीं दीखते मुझको प्यारे
छुट्टा घूमते बछड़े-साँड़….
ना दिखती कहीं कोई मंडली,
ना दिखते कहीं पर कोई भांड़…
नहीं दीखते लाल रंग के
लटके हुए कहीं लँगोट…!
कैसे कह दूँ काशी इसको…
इसमें तो है भारी खोट….
भरपेट भोजन नहीं,
नहीं भजन की आस…!
अस्सी वाला घाट नहीं,
ना कोई दिखता “काश”…!
झूठी गंगा की तुम बातें कहते,
झूठ-मूठ के कहते तुलसीदास…!
भूत-भभूत दोनों हैं गायब,
कोई न करता किसी पर विश्वास
कैसे कह दूँ काशी इसको,
कैसे मानू इसको ईश-प्रकाश…
ना डमरू दिखता ना दिखे त्रिशूल,
ना तुलसी दिखती ना कोई बबूल,
ना दिखता यहाँ कोई मन से कूल
ना ही दिखते यहाँ कहीं पर,
धतूर-मदार के फूल….!
झूठ-मूठ में इसको काशी कहकर
क्यों बना रहे हो मुझको “फूल”…
ना दिखती है रुद्राक्ष गले में,
ना कोई है भस्म लपेटे…
ना दिखता किसी के मुँह में पान
कोई नहीं है दिखता मुझको…!
देता हुआ किसी को दान…
कहीं न दिखती मुझको सिलबट्टी,
ना दिखती पिसती भांग….
अब तुम ही बताओ प्यारे मेरे,
कैसे कह दूँ इसको काशीधाम…!
सच कहते हो तुम सखा हमारे…
पर हम तो हैं बिधना के मारे,
तन-मन में तो बसी है काशी..पर..
हम तो ठहरे…दूर देश के वासी,
दूर करें हम कैसे…अपनी उदासी
सो इसको ही मान लिया है काशी
अब तुम भी प्यारे…!
इसको भी काशी ही समझो,
समझो इसको शिवधाम…!
कण-कण में इसके भी शंकर,
इसलिए अब सुनो जितेंदर….!
यही है हमरी काशी….
हम तर्क नहीं कर सकते तुमसे…
तुम तो ठहरे काशीवासी….!
तुम तो ठहरे काशीवासी….!
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद कासगंज